
वर्ष 1699, बैसाखी का पावन पर्व… पंजाब के आनंदपुर साहिब में इतिहास रचा गया। गुरु गोविंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना कर सिख धर्म को एक नई दिशा दी। लेकिन आखिर क्यों करनी पड़ी थी खालसा पंथ की स्थापना? और कौन थे वो पांच प्यारे, जिनके बलिदान ने इस पंथ की नींव रखी?





मुगल बादशाह औरंगजेब का अत्याचार बढ़ता ही जा रहा था। देश के मंदिर टूट रहे थे, हिंदुओं को जबरन इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया जा रहा था। इसी दौर में जम्मू-कश्मीर के कश्मीरी पंडित पहुंचे गुरु तेग बहादुर जी के पास… न्याय और रक्षा की गुहार लेकर।
गुरु तेग बहादुर दिल्ली पहुंचे और औरंगजेब को चुनौती दी कि अगर वह उनका धर्म बदलवा सके, तो सभी कश्मीरी पंडित इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। पर अत्याचारों के बावजूद गुरु टस से मस न हुए। अंततः उन्हें शहीद कर दिया गया। उनके साथियों को भी बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया।
गुरु तेग बहादुर की शहादत के बाद, उनके पुत्र गुरु गोविंद सिंह बने दसवें सिख गुरु। उन्होंने धर्म और मानवता की रक्षा के लिए 30 मार्च 1699 को आनंदपुर साहिब में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की। सभा में उन्होंने ऊंचे स्वर में कहा—”मुझे पांच शीश चाहिए।” सबसे पहले भाई दया सिंह, फिर एक-एक कर भाई धर्म सिंह, मोहकम सिंह, हिम्मत सिंह और साहब सिंह आगे आए। ये पांचों कहलाए पंज प्यारे।
गुरु गोविंद सिंह जी ने इन पांचों को अमृत पान कराया, केसरिया वस्त्र पहनाए और उन्हें “सिंह” उपाधि से सम्मानित किया। इसी के साथ खालसा पंथ का सृजन हुआ।
खालसा पंथ के नियम:
गुरु जी ने खालसा पंथ के अनुयायियों के लिए “पांच ककार” तय किए—
केश: प्राकृतिक रूप से बालों को बढ़ने देना।
कंघा: स्वच्छता का प्रतीक।
कड़ा: एकता और संकल्प का प्रतीक।
कच्छा: नैतिकता और अनुशासन का प्रतीक।
कृपाण: साहस और रक्षा का प्रतीक।
गुरु गोविंद सिंह जी ने सिखों को सिखाया कि तलवार सिर्फ अंतिम विकल्प हो। जब सारे शांतिपूर्ण प्रयास विफल हो जाएं, तभी हथियार उठाया जाए।
खालसा पंथ आज भी साहस, समर्पण और सेवा का प्रतीक है। गुरु गोविंद सिंह जी का यह कदम न सिर्फ सिख धर्म की रक्षा के लिए था, बल्कि पूरे मानव धर्म की रक्षा के लिए एक ऐतिहासिक कदम था।